दुलार से भावनाओं में मढ़ी,नाजो से समाज में बढ़ी।
आंचल में खुशियां लिए,आंखों में उम्मीद लिए।
कदमों में हिम्मत लिए,मन में साहस लिए।
अग्रसर हूं मैं दुनिया को जीतने,अग्रसर हूं मैं सपनों को पूरा करने।
अग्रसर हूं मैं अपनी छाप छोड़ने, अग्रसर हूं मैं कुछ कर गुजरने।
ऊंची उड़ान भरी,नई कहानी रची।
सफलता कदम चूमने लगी,
तभी........... ,तभी.......... सबकी आंखों में गड़ी।
आलोचना मिली,घृणा मिली,नफरतों की आंधी मिली।
अवहेलना मिली,दोष मिले, अपमान के पहाड़ मिले।
नई रीति-रिवाज बने,नई सभ्यता-संस्कार बने।
नए नियम-कानून बने,नए गुण-अवगुण बने।
समाज की जंजीरों ने जकड़ा,कुरीतियों ने पल्लू है पकड़ा।
ढकोसलों ने कदमों को अकड़ा,अनैतिकता ने रोम-रोम को कतरा।
फिर उठ खड़ी हुई,अबला नहीं सबला हुई।
कमजोर नहीं कठोर हुई,आरंभ हुई अनंत हुई।
शक्ति की इस लड़ाई में फिर विजय हुई,अस्तित्व की इस लड़ाई में फिर जीत हुई।
जिंदगी के रहस्य में अभिजीत हुई,फतह का तिलक माथे पर लगाएं......
दुर्गा हुई,काली हुई,चामुंडा हुई।
समानता का अधिकार न छीनो,सम्मानता का अधिकार न छीनो।
स्त्री है वह निर्जीव नहीं ,जीवन का आरंभ और अंत वही।
मत पूजो उसे,ना बनाओ चामुंडा,इंसान है इंसानियत तो दिखा।
सर उठा कर बढ़ने दे,आत्मविश्वास से भरने दे।
हौसलों के गुबार उमड़ने दे,एक बार फिर स्त्री को शक्ति बनने दे।
– ज्योत्सना चौहान
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