मत समझो ,मुझे जुही की कली,
मत समझो मुझे अबला,
मैं हूँ अब “शक्ति स्वरूपा -दुर्गा “
हाँ है मुझ में बल,बुद्धि,कौशल
नहीं मैं किसी से कम,
मत समझो मुझे अज्ञानी,
मैं हूँ अब “पुत्री स्वरूपा-शारदा “
हाँ हूँ मैं परिवार,समाज,देश की धूरी
नहीं किसी से मैं डरती,
मत समझो मुझे अपने अधीन,
मैं हूँ अब “स्वतंत्र स्वरूपा-लक्ष्मी “
हाँ है,अब भी मुझ में करुणा,माया,ममता
प्रकृति हूँ मैं,धरती हूँ मैं,
बीज की धारिणी हूँ मैं,
पर अब किसी की बंदिनी नहीं मैं!
धरोहर हूँ , अपने माता-पिता की,
धरोहर हूँ ,हर उस चाहने वाले की,
जिसने मुझे मनुष्य रूप में स्वीकारा,
मेरे अस्तित्व,मेरी भावनाओं को समझा,
मुझे माटी की मूरत न माना,वरन
मेरे गुणों को पहचान कर स्वीकारा,
अब मैं बंध न सकुंगी ,अन्याय को सह न सकुंगी,
क्योंकि,प्रतिकार की शक्ति को मैं-जान गई हूं
मेरे अस्तित्व के बिना “ठूँठ” है ये समाज,
“बजा ले डंका “ कितना भी,मेरे बिना राग ना
अलाप सके गा ये समाज,
क्योंकि- हाँ मैं हूँ, मैं थी, मैं रहूँगी
बीच में,केंद्र में,मध्य में
और अखिल विश्व घूमेगा चारों ओर मेरे,क्योंकि
हाँ हूँ मैं,परिवार,समाज,देश की धूरी !
मत समझो मुझे जुही की कली,
मत समझो मुझे जुही की कली .
– डॉ. मनीषा दंडवते
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